Friday, May 21, 2021

Laash

लाश

ये किसने लाश फेंक दी जवानियों की राह में
अभी नमूद-ए-ज़िन्दगी बसी ना थी निगाह में
अभी दरीचा-ए-सहर खुला ना था
अभी फ़सूं-ए-तीरगी मिटा ना था
सुकूत में ज़माना था
अभी गुज़र रहे थे हम जवार-ए-रज़्मगाह में
ये किसने लाश फ़ेंक दी जवानियों की राह में

ये ख़ून-ए-इश्क-ओ-आह था
ये शाम-ए-ग़म का अक्स था, ये एक इन्तबा था
सितमगरों के तरकशों का तीर था
मगर बारह-ए-मस्लेहत
अभी ये सख़्त चुटकियों के पेच में असीर था
के अब गुज़र रहे थे हम नुमाइश-ए-सिपाह में
हुजूम-ए-इश्क-ओ-आह में
ये किसने लाश फेंक दी जवानियों क राह में

हमीं इसे कुचल ना दें अभी यहीं
ये रौंदने की चीज़ क्यूँ बने अमानत-ए-ज़मीन
नहीं, नहीं!!
बढ़े चलो, बढ़े चलो, कुचल भी दो
ख़ज़ाँ का ग़ुंचा है ये लाश हाँ इसे मसल भी दो!
मगर ये किस की लाश थी के बेड़ियाँ
पड़ी हैं अब भी पाँव में?
ये किसने लाश फेंक दी जवानियों की राह में?
सितम की धूप छाओं में 
बढ़े चलो, बढ़े चलो, कुचल भी दो 
ख़ज़ाँ का ग़ुंचा है ये लाश हाँ इसे मसल भी दो
ये किसने लाश फेंक दी जवानियों की राह में?
 
ये मौत का मजस्समा डरा रहा है देर से
लहू में तर-बतर है सर से पाँव तक
जमे हुए लहू में है मेरे ही ख़ून की महक
कोई अज़ीज़ तो नहीं?
मगर, कटे हुए सरों में कुछ तमीज़ तो नहीं
कोई भी हो अज़ीज़ है
कि इस जरी ने जान दी है जश्न-ए-रज़्मगाह में
ये किसने लाश फेंक दी जवानियों की राह में?

ये दौर अपने आश्रम को छोड़ कर 
ये अपने टूटे झोंपड़े से अपने मुँह को मोड़ कर 
ये ज़ुल्म-ओ-जौर की भरी कलाइयाँ मरोड़ कर 
निकल पड़ा 
अँधेरी रात थी मगर ये चल पड़ा 
कोई भी हो अज़ीज़ 
के इस जरी ने जान दी है जश्न-ए-रज़्मगाह में 
ये किसने लाश फेंक दी जवानियों की राह में?

- अली जवाद ज़ैदी  (लखनऊ 1943) (From  तेश-ए-आवाज़, page 48)



1 comment:

Frank Kristopoulos said...

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