"Muqaddama Saazish e Lahore ke Aseeron ki Avaaz"
Bharat na rah sakega hargiz ghulam-khana
Azaad hoga, hoga, aata hai vo zamaana
Ab bhed aur bakri mil kar na rah sakenge
Kar denge zaalimon ka ab band zulm dhaana
Khoon khaulne lagega hindostaaniyon ka
Is past-himmati ka hoga kahaan thikaana
Bharat ke hum hain bachche,bharat hamaari mata
Iske hi vaaste hai manzoor sar kataana
Urooj-e-kamyaabi par kabhi Hindostan hoga
Bahaar aa jayegi us din apna baagbaan hoga
Chakhayenge maze barbaadi-e-gulchin ko
Jab apni hi zameen hogi aur apna aasmaan hoga
Shaheedon ki chitaaon par lagenge har baras mele
Vatan par marne walon ka yahi namonishaan hoga
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'ज़ब्त शुदा नज़्में' किताब में से एक और नज़्म। इसे किसने लिखा है ये मालूम नहीं, किताब में 'नामालूम' लिखा है।
"मुक़दम्मा साज़िश ए लाहौर के असीरों की आवाज़"
भारत ना रह सकेगा हरगिज़ ग़ुलामख़ाना
आज़ाद होगा, होगा, आता है वो ज़माना
अब भेड़ और बकरी मिल कर न रह सकेंगे
कर देंगे ज़ालिमों का अब बंद ज़ुल्म ढाना
ख़ूूँ खौलने लगेगा हिन्दोस्तानियों का
इस पस्त-हिम्मती का होगा कहाँ ठिकाना
भारत के हम हैं बच्चे भारत हमारी माता
इसके ही वास्ते है मंज़ूर सर कटाना
उरूज-ए-कामयाबी पर कभी हिन्दोस्तान होगा
बहार आ जाएगी उस दिन जब अपना बाग़बाँ होगा
चखाएंगे मज़े बर्बादी-ए-गुलशन के गुलचीं को
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमां होगा
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही नामोनिशां होगा।
"मुक़दम्मा साज़िश ए लाहौर के असीरों की आवाज़"
भारत ना रह सकेगा हरगिज़ ग़ुलामख़ाना
आज़ाद होगा, होगा, आता है वो ज़माना
अब भेड़ और बकरी मिल कर न रह सकेंगे
कर देंगे ज़ालिमों का अब बंद ज़ुल्म ढाना
ख़ूूँ खौलने लगेगा हिन्दोस्तानियों का
इस पस्त-हिम्मती का होगा कहाँ ठिकाना
भारत के हम हैं बच्चे भारत हमारी माता
इसके ही वास्ते है मंज़ूर सर कटाना
उरूज-ए-कामयाबी पर कभी हिन्दोस्तान होगा
बहार आ जाएगी उस दिन जब अपना बाग़बाँ होगा
चखाएंगे मज़े बर्बादी-ए-गुलशन के गुलचीं को
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमां होगा
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही नामोनिशां होगा।
ये नज़्म 'पयाम ए जंग' में १९३० में छपी थी। एडिटर नरायन सिंह 'मुसाफ़िर' ने नज़्म के ता'र्रुफ़ के तौर पे लिखा था: 'ये नज़्म कॉमरेड प्रेम दत्त, मुल्ज़िम साज़िश-ए-लाहौर, अपनी सीधी आवाज़ से मुक़द्दमे के समाहत के दौरान पढ़ा करते हैं. बादा ज़ाँ फिर तमाम मुल्ज़िम मिल कर गाते हैं।
Lovely
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