Monday, February 08, 2016

aurat aur mandir

कल अख़बार देख कर मेरी माँ ने कहा, अगर शनी मंदिर में औरतों को जाने की इजाज़त नहीं है, तो ना जाएँ। क्या फ़र्क़ पड़ता है?

एक पल को मैंने भी सोचा, ठीक बात है, नुक़सान तो मंदिर का ही है। मैंने ख़ुद तय किया है, किसी ऐसी जगह नहीं जाऊँगी जहाँ औरतों को बराबर दर्जा मिलता। आधी आबादी बॉयकॉट करेगी, अपने आप अक़ल ठिकाने लग जायेगी।

कुछ साल पहले तक मैं दिल्ली के निज़ामुद्दीन दरगाह जाती थी, लेकिन मज़ार पहुँचने से पहले मुझसे फूलों की टोकरी ले ली जाती, मज़ार को हाथ नहीं लगाने दिया जाता। मैं बाहर बैठी क़व्वाली सुनती लेकिन मन में अंगारे भड़कते रहते। आख़िर मन इतना खट्टा हो गया कि मैंने जाना ही छोड़ दिया। मुंबई में हाजी अली भी नहीं गयी।

आख़िर दरगाह जाने वालों को सूफ़ी की मोहब्बत खीँच लाती है। सूफ़ी संतों की सबसे ख़ास बात यह थी, वे भेद-भाव नहीं करते थे - न जात-पात, या मज़हबी कट्टरपन। मानने वालों में औरत और मर्द बराबर हुआ करते थे। ये औरतों से छुआ-छूत का चलन नया है। आज से पंद्रह-बीस साल पहले, जब मैं पहली बार हाजी अली और निज़ामुद्दीन के दरगाह गई, किसी ने मुझे रोका नहीं। और जब सूफ़ी संत ख़ुद जीते जी औरतों को दूर न रखते, किसी को क्या हक़ है हमें रोकने का?

अक्सर ख़ादिम मज़ार को अपनी जागीर समझते हैं, ठीक उसी तरह जैसे पंडित मंदिरों को अपना गढ़।

मंदिर हो या दरगाह, इनका वजूद भक्तों से है, और उनके दिए चढ़ावे से - फ़ूल, प्रसाद, कील, रोली, नारियल, चादर और पैसे। सबसे बड़ी बात - पैसे। तो मैंने भी ठान ली - एक कौड़ी न दूँगी। अगर औरत की देह से इतनी तकलीफ़ है, तो इसी देह की मेहनत से कमाए पैसों पे क्यों हाथ मारने दूँ? इसी देह में पनपती है श्रद्धा, और ग़दर भी।

लेकिन फिर मन में एक और बात आई - अगर ये लोग ('ये' लोग जो तय करते हैं, औरत को क्या आज्ञा है, कहाँ प्रवेश है, कहाँ नहीं) कल ये कह दें कि औरत का हर मंदिर में प्रवेश निषेध है, तो? अगर वो ये कहें, देव ही नहीं, देवी की मूरत को भी औरत छू नहीं सकती, तो? और किसी दिन अगर वो ये कह दें कि औरत का पढ़ना-लिखना धर्म के ख़िलाफ़ है, तो?

बहुत दूर की बात नहीं कह रही। औरत को क्या हासिल है , क्या मना है, ऐसे फ़रमान हर मज़हब में जारी हुए हैं। जाती के नाम पे मर्दों पे भी हर तरह की पाबंदी लगायी गई। इतिहास (और वर्तमान) गवाह है, मर्द-औरत-बच्चे सब पे धर्म और मज़हब के नाम पे लोगों ने ऐसे सितम ढाए कि सुन के रूह काँप जाती है। और जब भी परिवर्तन आया है, बहुत लड़ने के बाद ही आया है।

ये मसला सिर्फ़ मंदिर-मस्जिद-दरगाह में प्रवेश का नहीं है। मसला औरत और शमशान में दाह संस्कार, औरत और क़ब्रिस्तान, औरत और स्कूल-कॉलेज-व्यवसाय का भी है। औरत की देह पे हर तरह की पाबन्दियाँ हैं - यहाँ मत जाओ; उसके साथ मत जाओ; मर्ज़ी से शादी न करो; दोबारा शादी न करो; बच्चे पैदा करो; गर्भ-पात ना करो; सर अलावा शरीर के सारे बाल निकालो; दुबली-पतली रहो मगर इतनी भी दुबली नहीं के छाती चपटे तवे-सी लगे; टाँग छुपाओ; मुँह छुपाओ; सर धक के रखो; माहवारी रहते रसोई में न जाओ; आचार न छुओ; बेवा हो तो दुल्हन को न छुओ; बेवा हो तो खाना फीका खाओ, साड़ी सफ़ेद पहनो; जंग के मैदान में ना जाओ; गाड़ी ना चलाओ।

जो औरतें शनी मंदिर में और हाजी अली दरगाह में बराबर प्रवेश के हक़ के लिए लड़ रही हैं, शायद जानती हैं, पाबंदियों का कोई अंत नहीं, ना ही कोई तर्क। और अन्याय का एक ही जवाब है - संघर्ष।

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1 comment:

Dr Purva Pius said...

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