मेरी माँ ने एक बात कही थी जो ज़हन में गहरी जा के अटक गयी है। उन्होंने कहा: ख़ुदा/ भगवान/ प्रकृति किसी को दुनिया में भूखा मरने के लिए नहीं भेजता है; बच्चे के साथ उसकी रोटी भी भेजी है। माँ के ज़रिये उसके खाने-पीने का इंतेज़ाम किया है।
किसी बच्चे से उसकी रोटी, दूध छीना जा रहा है तो इसमें धरती का दोष नहीं है, न ऊपर वाले की कठोरता। ये इंसान का काम है, जो ऐसे हालात पैदा कर देता है कि माँ के पास कुछ नहीं बचता अपने बच्चे के लिए।
उन दिनों मैं अपनी माँ से अक्सर बहस किया करती थी। मुझे लगता था, ऊपर वाले (या वाली) की अच्छाई पे कोई कैसे यक़ीन कर सकता है जब नीचे, दुनिया में, देश में इतनी तकलीफ़ है? अब समझती हूँ। कुछ इंसान हैं ऐसे जो दूसरों से सब छीन लेते हैं, अपने पास बटोर के रख लेते हैं। इस बटोरने की कोई इन्तहा नहीं। ज़मीन, पेड़, साफ़ पानी और सुरक्षा, सुकून की नींद - इतना छीन लो और माँ की सेहत बिखरने लगेगी। लाचार माँ, भूखा बेज़ार बच्चा।
मुझे ये भी लगने लगा है, छीनने के सिलसिले की शुरुआत माँ की ज़ुबान से होती है, ताकि जब एक-एक कर सारी सहूलियतें, जीने के ज़रिये ख़त्म होते नज़र आएं, वो अपनी तकलीफ़ बयान न कर सके।
शायद छीनने वालों को डर है, कहीं बच्चे किसी तरह पल ही गए तो कौन सी कहानियाँ सुन कर सोयेंगे? माँ की मजबूरियों की ज़िम्मेदारी ठहराने चले, तो कहाँ रुकेंगे?
इसलिए माँ की ज़ुबान पे ताला ज़रूरी है। कभी उसे डराया जाता है - मुँह बंद रखो नहीं तो जान सलामत नहीं। कभी उसे छोटी-छोटी रिश्वत से बहलाया जाता है - ये लो एक रोटी और एक बोटी, चुप बैठ के खाओ नहीं तो कल दोबारा ये भी नहीं मिलेगी। जो माँ बेचैन रहे, चीख़े चिल्लाए कि जो हक़ प्रकृति ने दिया है उसे छीनने वाले तुम कौन हो? उसकी ज़ुबान खींच ली जाती है। जो लोग ज़मीन-पानी-हवा का शोर मचाएँ, उनका मुल्क ढेर कर दिया जाता है।
देश. माँ. माता. Motherland. रोटी। दूध। बग़ावत। शहादत।
कब से? कब तक?
शायद हर दौर में माँ एक रोटी का सौदा कर गयी है, चार रोटी की भूख को कुचलती हुई। हर दौर में एक मटका पानी लाने में इतनी मसरूफ़ रही, नदी की धार पे क़ब्ज़ा करना भूल गयी। बच्चों की जान बचाने के लिए पैसों का इंतज़ाम करती रही और जिस जगह पैसे पे बच्चों की ज़िन्दगी का सौदा टिका है, वहाँ के निज़ाम को खदेड़ने की ताक़त नहीं बना पाई।
प्रेम करती रही, वोट भर्ती रही। अपने हक़ में खड़ी कम ही हुई। बच्चे बच सके तो बच गए।
किसी बच्चे से उसकी रोटी, दूध छीना जा रहा है तो इसमें धरती का दोष नहीं है, न ऊपर वाले की कठोरता। ये इंसान का काम है, जो ऐसे हालात पैदा कर देता है कि माँ के पास कुछ नहीं बचता अपने बच्चे के लिए।
उन दिनों मैं अपनी माँ से अक्सर बहस किया करती थी। मुझे लगता था, ऊपर वाले (या वाली) की अच्छाई पे कोई कैसे यक़ीन कर सकता है जब नीचे, दुनिया में, देश में इतनी तकलीफ़ है? अब समझती हूँ। कुछ इंसान हैं ऐसे जो दूसरों से सब छीन लेते हैं, अपने पास बटोर के रख लेते हैं। इस बटोरने की कोई इन्तहा नहीं। ज़मीन, पेड़, साफ़ पानी और सुरक्षा, सुकून की नींद - इतना छीन लो और माँ की सेहत बिखरने लगेगी। लाचार माँ, भूखा बेज़ार बच्चा।
मुझे ये भी लगने लगा है, छीनने के सिलसिले की शुरुआत माँ की ज़ुबान से होती है, ताकि जब एक-एक कर सारी सहूलियतें, जीने के ज़रिये ख़त्म होते नज़र आएं, वो अपनी तकलीफ़ बयान न कर सके।
शायद छीनने वालों को डर है, कहीं बच्चे किसी तरह पल ही गए तो कौन सी कहानियाँ सुन कर सोयेंगे? माँ की मजबूरियों की ज़िम्मेदारी ठहराने चले, तो कहाँ रुकेंगे?
इसलिए माँ की ज़ुबान पे ताला ज़रूरी है। कभी उसे डराया जाता है - मुँह बंद रखो नहीं तो जान सलामत नहीं। कभी उसे छोटी-छोटी रिश्वत से बहलाया जाता है - ये लो एक रोटी और एक बोटी, चुप बैठ के खाओ नहीं तो कल दोबारा ये भी नहीं मिलेगी। जो माँ बेचैन रहे, चीख़े चिल्लाए कि जो हक़ प्रकृति ने दिया है उसे छीनने वाले तुम कौन हो? उसकी ज़ुबान खींच ली जाती है। जो लोग ज़मीन-पानी-हवा का शोर मचाएँ, उनका मुल्क ढेर कर दिया जाता है।
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