मेरे नाना साहब की लिखी एक बहुत पुरानी नज़्म. उस ज़माने में वो लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे. उम्र क़रीब 22 साल रही होगी (नज़्म पे तारीख़ 1938 लिखी है). ये तो नहीं मालूम कि नज़्म में किस कश्मकश का ज़िक्र है लेकिन कुछ अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1941 तक वो ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के जनरल सेक्रेटरी रह चुके थे और जंग-ए-आज़ादी में पूरी तरह शामिल होकर जेल चले गए.
बाक़ी, एक नौजवान का दिल तो था ही, उसकी कश्मकश अलग रही होगी... पढ़िए ज़रूर.
कश्मकश
इस गुंचा-ए-ख़ुशरंग को तोड़ूँ के ना तोड़ूँ?
गुलचीं की निगाहों का शरर रोक रहा है
साग़र के लब-ए-सुर्ख़ को चूमूँ के ना चूमूँ?
मैख़ाने का अंदाज़-ए-नज़र रोक रहा है
गोदी में मह-ओ-साल की मचलूँ के ना मचलूँ?
आते हुए आलाम का डर रोक रहा है
है मौसम-ए-गुल जोश पे चहकूँ के ना चहकूँ?
पैहम कफ़स-ए-तंग का दर रोक रहा है
पयमाना-ए-सरजोश हूँ छलकूँ के ना छलकूँ?
हर मंज़र-ए-बेकैफ़-ओ-असर रोक रहा है
मंज़िल की तरफ़ बाग को मोड़ूँ के ना मोड़ूँ?
कोई मिरी हर राहगुज़र रोक रहा है
फ़ितरत के सिरा परदों को उलटूँ के ना उलटूँ?
क़ानून-ए-ख़ुम-ए-तेग़-ओ-तबर रोक रहा है
फ़रसूदा निज़ामों को बदल दूँ के ना बदलूँ?
तहज़ीब का हिलता हुआ सर रोक रहा है
-
रुकने का भी इमकान है चलने का भी इमकान
जलने का भी इमकान है फलने का भी इमकान
थमने का भी इमकान उबलने का भी इमकान
गिरने का भी इमकान संभलने का भी इमकान
ख़तरे हैं अगर लाख तो इमकान हज़ारों
बढ़ने के भी हटने के भी सामान हज़ारों
ये कश्मकश ए ज़ीस्त, ये आवेज़िश-ए-अफ़कार
सरमाया-ए-सरमस्ती-ए-याराना तराहदार
ग़ैरों को मवाफ़िक़ नहीं अपनों को सज़ावार
अपनों को सज़ावार के वीराने हों गुलज़ार
गुलज़ार जो आज़ार-ए-मह-ओ-साल भुला दे
वो तल्ख़ी-ए-माज़ी ये ग़म-ए-हाल भुला दे
- अली जवाद ज़ैदी
लखनऊ (सन 1938)
किताब का नाम: सिलसिला
कुछ शब्दों के मायने
गुंचा = फूल या कली
गुलचीं = माली
शरर = चिंगारी
मह-ओ-साल = महीने और साल
आलाम = मुसीबतें या मुश्किलें
पैहम = लगातार
कफ़स ए तंग = सिकुड़ा हुआ पिंजड़ा/ क़ैदख़ाना
मंज़र-ए-बेकैफ़-ओ-असर = बिना असर या दुःखी नज़ारा
क़ानून-ए-ख़ुम-ए-तेग़-ओ-तबर = तलवार और कुल्हाड़ी का उठता/बढ़ता हुआ क़ानून
फ़रसूदा = पुराना
इमकान = सम्भावनाएँ
आवेज़िश-ए-अफ़कार = चिंतन/फ़िक्र की लड़ाई
तराहदार = ख़ूबसूरत / स्टाइलिश
मवाफ़िक़ = जो हामी भर दे या फिर हामी भरना / to conform
सज़ावार = सज़ा के लायक़
आज़ार = तकलीफें, दर्द
तल्ख़ी-ए-माज़ी = बीते दिनों की कड़वाहट
ग़म-ए-हाल = अभी का ग़म
बाक़ी, एक नौजवान का दिल तो था ही, उसकी कश्मकश अलग रही होगी... पढ़िए ज़रूर.
कश्मकश
इस गुंचा-ए-ख़ुशरंग को तोड़ूँ के ना तोड़ूँ?
गुलचीं की निगाहों का शरर रोक रहा है
साग़र के लब-ए-सुर्ख़ को चूमूँ के ना चूमूँ?
मैख़ाने का अंदाज़-ए-नज़र रोक रहा है
गोदी में मह-ओ-साल की मचलूँ के ना मचलूँ?
आते हुए आलाम का डर रोक रहा है
है मौसम-ए-गुल जोश पे चहकूँ के ना चहकूँ?
पैहम कफ़स-ए-तंग का दर रोक रहा है
पयमाना-ए-सरजोश हूँ छलकूँ के ना छलकूँ?
हर मंज़र-ए-बेकैफ़-ओ-असर रोक रहा है
मंज़िल की तरफ़ बाग को मोड़ूँ के ना मोड़ूँ?
कोई मिरी हर राहगुज़र रोक रहा है
फ़ितरत के सिरा परदों को उलटूँ के ना उलटूँ?
क़ानून-ए-ख़ुम-ए-तेग़-ओ-तबर रोक रहा है
फ़रसूदा निज़ामों को बदल दूँ के ना बदलूँ?
तहज़ीब का हिलता हुआ सर रोक रहा है
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रुकने का भी इमकान है चलने का भी इमकान
जलने का भी इमकान है फलने का भी इमकान
थमने का भी इमकान उबलने का भी इमकान
गिरने का भी इमकान संभलने का भी इमकान
ख़तरे हैं अगर लाख तो इमकान हज़ारों
बढ़ने के भी हटने के भी सामान हज़ारों
ये कश्मकश ए ज़ीस्त, ये आवेज़िश-ए-अफ़कार
सरमाया-ए-सरमस्ती-ए-याराना तराहदार
ग़ैरों को मवाफ़िक़ नहीं अपनों को सज़ावार
अपनों को सज़ावार के वीराने हों गुलज़ार
गुलज़ार जो आज़ार-ए-मह-ओ-साल भुला दे
वो तल्ख़ी-ए-माज़ी ये ग़म-ए-हाल भुला दे
- अली जवाद ज़ैदी
लखनऊ (सन 1938)
किताब का नाम: सिलसिला
कुछ शब्दों के मायने
गुंचा = फूल या कली
गुलचीं = माली
शरर = चिंगारी
मह-ओ-साल = महीने और साल
आलाम = मुसीबतें या मुश्किलें
पैहम = लगातार
कफ़स ए तंग = सिकुड़ा हुआ पिंजड़ा/ क़ैदख़ाना
मंज़र-ए-बेकैफ़-ओ-असर = बिना असर या दुःखी नज़ारा
क़ानून-ए-ख़ुम-ए-तेग़-ओ-तबर = तलवार और कुल्हाड़ी का उठता/बढ़ता हुआ क़ानून
फ़रसूदा = पुराना
इमकान = सम्भावनाएँ
आवेज़िश-ए-अफ़कार = चिंतन/फ़िक्र की लड़ाई
तराहदार = ख़ूबसूरत / स्टाइलिश
मवाफ़िक़ = जो हामी भर दे या फिर हामी भरना / to conform
सज़ावार = सज़ा के लायक़
आज़ार = तकलीफें, दर्द
तल्ख़ी-ए-माज़ी = बीते दिनों की कड़वाहट
ग़म-ए-हाल = अभी का ग़म
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